
परिचय
पिंजर अमृता प्रीतम द्वारा लिखित एक मार्मिक कहानी है |अमृता प्रीतम पंजाब की सबसे लोकप्रिय लेखको में से एक थीं। पद्मविभूषण तथा साहित्य अकादमी पुरष्कारों से सम्मानित इस लेखिका की कई ऐसे रचनाएँ हैं जो पाठक के दिलों को छू लेती है।
1947 में भारत- पाकिस्तान विभाजन के वक़्त वह लाहौर छोड़कर भारत आ गयीं किन्तु एक लेखक के नाते वह भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में लोकप्रिय बनीं रहीं।
पुस्तक के बारे में
पिंजर मूलतः एक लड़की ‘पूरो’ की कहानी है जो पितृसत्तात्मक सामाज की शिकार हो जाती है और उसकी शादी से ठीक पहले उसे इस्लाम धर्म के एक लड़के द्वारा भगा कर ज़बरदस्ती निकाह कर लिया जाता है।
संयोग से वह लड़का ‘राशिद’ उसका काफी ध्यान रखता है और उसे यह भी बताता है की उसने उसका अपहरण अपने पुरखों द्वारा दिलाई गयी कसमों के कारण किया जो पूरो के पुरखों के द्वारा प्रताड़ित होने के कारण बदले की आग में जल रहे थे।
इस कहानी में पूरो ने कई बार पिंजर शब्द का प्रयोग अलग-अलग व्यथाओं में डूबी हुई महिलाओं के लिए किया गया है जो समाज के द्वारा अलग-अलग तरीकों से प्रताड़ित कीं गयीं हैं।
एक विधवा की जीवनी, एक पागल औरत, अपनी भाभी पर बीतने वाली सारी घटनाओं के ज़रिए पूरो ने कई महिलाओं को अपने समान पिंजर (skeleton) के समान पाया| पिंजर का मतलब यहाँ ज़िंदा लाश से है।
‘दावेदार’ अध्याय को पढ़ते वक़्त हम कुछ गंभीर सवालों से घिर आते हैं | इस अध्याय को पढ़ने के बाद शायद आप भी खुद को ‘मानवता बड़ी या धर्म ?’ सवाल करने से नहीं रोक पाएंगे |
इस पुस्तक का सबसे मर्मस्पर्शी अध्याय ‘1947’ है जिसे पढ़ने के बाद विभाजन के दृश्य सामने से तैरते नज़र आते हैं और इस बात का एहसास कराते हैं कि विभाजन के वे दिन आम लोगों के लिए कितने कष्टकारी रहे होंगे जब ‘ज़िंदा लाशें ‘ अपने कब्र की तालाश में सीमाओं के दोनों ओर भटक रहीं होंगी।
पुस्तक का अंतिम हिस्सा ‘मुक्ता’ को समर्पित है जो किसी ऐसे व्यक्ति की पत्नी बनने जा रही है जिसकी पहली पत्नी का देहांत हो गया है।
उसे हर वक़्त इस बात की झिझक रहती है और अपना शरीर एक ‘पिंजर’ सा प्रतीत होता है।
किन्हे पढ़ना चाहिए
लड़कियों को ये पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए क्योंकि यह पुस्तक उन्हें मानसिक रूप से सशक्त बनने में मदद करता है।
लड़कियाँ अपनी आज की मिली आज़ादी को गुलाम भारत में प्राप्त महिलाओं की आज़ादी में फर्क साफ़ -साफ़ महसूस कर सकेंगी।
फिर भी महिला सुरक्षा के लिए काफी कुछ किया जाना बाकी है।
इसके अलावा पाठकों को विभाजन की पीड़ा को भी समझने का एक मौका मिलेगा।
स्कूली बच्चों को इस बात का ज्ञान ज़रूर हो 1947 में जब हमने देश का निर्माण फिर से शुरू किया था तब हम कहाँ थे और इतने वर्षों में हमने कितने दूरी तय की है।
चाहे समाज में महिलाओं की मिली आज़ादी हो या गरीबी से मुक्ति या शिक्षा, सभी क्षेत्रों में प्रगति नज़र आएगी और आगे के वर्षों के लिए लक्ष्य निर्धारण में मदद मिलेगी।